माला के 108 दानें क्यों?
Mala me 108 Dane Kyo hote hai?
कर-माला दायें हाथ की अंगुलियों के बारह पर्यों में से अनामिका के मध्यम पर्व से प्रारम्भ करके दक्षिणावर्त रीति से घूमते हुए इसी पर्व पर समाप्त हो जाती है। इस गणना में मध्यमा अँगली का मध्यम पर्व ही केवल छूटता है, और चारों अंगुलियों के शेष ग्यारह पर्व आ जाते हैं। माला के अभाव में इसका (अंगलियों का) भी उपयोग होता है। ‘नक्षत्र-माला’ सत्ताइस मनके और एक समेरु से बनती है। परन्तु सर्वकार्यों में नित्यकर्म में आने वाली माला एक सौ आठ दाने की होती है, जिसके ऊपरी भाग में सुमेरु अलग से रहता है। इसके एक सौ आठ दाने क्यों होते हैं? कम या अधिक क्यों नहीं होते? यह भी एक जिज्ञासा हो सकती है।
- एक सौ आठ दानों का प्रथम कारण यह है कि ‘अण्ड-पिण्ड’ सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड के प्रकृति के नियन्त्रण से निरन्तर चारों दिशाओं में घूमती हुई नक्षत्रमाला को देखकर भारतीय ऋषियों ने भी नक्षत्रों की संख्या सत्ताइस को दिशाओं की चार संख्या से गुणित करके एक सौ आठ संख्या के मनकों वाली अपनी माला का निर्माण किया है।
- एक सौ आठ दाने का दूसरा कारण यह भी है कि सत्ताइस नक्षत्रों में प्रत्येक नक्षत्रों के चार चरण होते हैं। जैसे ‘चू चे चो ला’ अश्विनी आदि, जिसे सभी साक्षर जानते हैं। अतः समस्त सत्ताइस नक्षत्रों के कुल मिलाकर 108 ही चरण होते हैं। इस गणना के अनुसार जप माला के 108 दाने ठीक हैं। यहाँ यह भी जान लेना चाहिए कि ‘नक्षत्र माला के आधार पर हमारी यह माला बनी है’ यह केवल हमारी कल्पना नहीं है, अपितु हमारे इस विवेचन में एक अटल कारण भी विद्यमान है। माला के दोनों किनारों को मिलाकर जहाँ एक किया जाता है, उस स्थान के सर्वोच्च दाने को सुमेरु’ कहते हैं। अत: हमारे ब्रह्माण्ड की नक्षत्रमाला के भी दाने को भी ‘सुमेरु’ कहते हैं। हमारे ब्रह्माण्ड की नक्षत्रमाला के भी दोनों किनारे जहाँ सम्मिलित होते हैं, उस स्थान को ‘सुमेरु पर्वत’ के नाम से ही पुराण आदि ग्रन्थों में स्मरण किया गया है। जैसे कोल्हू का एक किनारा एक कील पर स्थिर रहता है और दूसरा चारों ओर वर्तुलाकर घूमता है। ठीक इसी प्रकार नक्षत्रमाला का भी एक किनारा ध्रुव की ओर ‘सुमेरु’ नामक कील पर सुस्थिर है और दूसरा पूर्व से पश्चिम की ओर घूमता है। ध्रुव और तत्सम्बद्ध ध्रुवाक्ष नाम के दोनों तारों और सप्तर्षिमण्डल के सात तारों के परिक्रमण से हमारी यह बात ठीक समझ में आ सकती है। इसलिए जपमाला और नक्षत्र माला दोनों के ही संयोजन स्थान को ‘समेरु’ कहने के कारण कोई भी विचार उक्त दोनों वस्तुओं की समता का सहज में ही अनुमान कर सकता है।
- माला के एक सौ आठ दाने का तीसरा कारण यह भी है कि अहोरात्र में मनुष्य के श्वासों की स्वाभाविक संख्या इक्कीस हजार छ: सौ वेद शास्त्रों में निश्चित की है यथा-षट् शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः।
एतत्संख्यात्मकं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा।। (चूडामणि उपनिषद् 32/33)
अहोरात्र में यदि आधा समय शयन, भोजन अन्यान्य सांसारिक कृत्यों का अर्थात-लोक साधना का माना जाये और आधा परमार्थ साधना का माना जाये, तो 21600 श्वासों के आधे 10800 (दस हजार सौ) श्वास ईश्वरोपासना या हरिभजन के लिए निश्चित समझने चाहिए। शास्त्र कहता है कि हमारे जीवन के श्वास व्यर्थ नहीं जाने चाहिए।
अतः यदि हम शास्त्रविधि के अनुसार प्रतिदिन एक माला भी जप कर दें, तो हमारे ये सब श्वास सार्थक हो सकते हैं, क्योंकि विधिवत् किया हुआ जप- ‘उपांशु स्यात् शतगणः‘ के अनुसार सौ गुणा हो जाता है। अब इन सब शास्त्र व्यवस्थाओं का समन्वय कीजिए। कल्पना करें कि एक व्यक्ति प्रतिदिन कम-से-कम एक माला ‘उपांशु जप’ करता है। एक सौ आठ दाने की माला घुमाने से 108 बार मन्त्र या हरि नाम जपा। उपांश जप होने के कारण इसका फल सौ गुणा हुआ, फलतः 108 X 100 = 10800 होता है। अर्थात् मनुष्य के आधे श्वासों के बराबर हो जाता है। इस तरह मनुष्य के श्वासों को सार्थक बनाने के लिए कम से कम जितने जप की आवश्यकता है, उसका ठीक हिसाब 108 दाने की माला बनाने पर बैठ सकता है। इसलिए भी माला के एक सौ आठ दाने ही उपयुक्त हैं।
- चौथा कारण यह है कि ‘शतपथ ब्राह्मण’ के दसवें काण्ड में ‘अथ सर्वाणि भूतानि‘ इत्यादि प्रसंग में लिखा है कि एक संवत्सर के दस हजार आठ सौ मुहूर्त होते हैं और इतने ही वेदत्रयी के पंक्ति युग्म होते हैं। पुरुष की पूर्णायु सौ वर्ष मानी गई है। यदि 10800 मुहूर्तों को जीवन के वर्षों की संख्या 100 पर विभक्त किया जाये, तो 108 होते हैं। कम से कम इतना भी नित्य जप करने से पंक्तिपाठ सम्पन्न हो जाएगा।
- बुद्धि के सामान्य धरातल से जरा गहराई में पैठकर झाँके, तो माला की 108 संख्या, ब्रह्मात्मैक्य प्रेरणा के आध्यात्मिक तल को स्पर्श करती हुई दिखाई देगी। सृष्टि और प्रलय के गहनतम रहस्य से ओत-प्रोत माला की यह संख्या साधक को ब्रह्मसायुज्य का अधिकारी बनाती है। दार्शनिक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि यह अखिल विश्व की ब्रह्मरूपी सूत्र में पिरोई हुई माला है। सच्चिदानन्द मय ब्रह्म ही सुमेरु स्वरूप है और उससे ही प्रारम्भ और उसी पर समाप्त हो जाने वाले ये 108 मनके सर्ग एवं प्रलय के उपादान कारणों की प्रतिमूर्ति के अतिरिक्त कुछ हैं ही नहीं।