शौचालय का फ्लश
Toilet Flush
(स्वच्छ एवं दुर्गन्ध रहित शौचालय के लिए)
प्राचीनकाल में मनुष्य खुले मैदान में नित्यक्रिया से निवृत्त होता था। (यह चलन आज भी ग्रामीण व आदिवासी इलाकों में प्रचलित है।) कालांतर में शौचालय बनाए जाने लगे। इससे परेशानी कुछ कम हुई। फिर भी उन्नत रहन-सहन वाले लोगों में आरामदायक शौचालय बनवाने की इच्छा पनपती रही। इस दिशा में तमाम प्रयास भी हुए। जब प्राचीन सभ्यताओं की खोज में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने खुदाई करवाई तो अन्य चीजों के साथ-साथ प्राचीन शौचालयों के अवशेष भी मिले। ये अत्यंत साधारण किस्म के थे। इनमें पत्थर की सीट होती थी। और मल एक गड्डे में इकट्ठा हो जाता था, जहां से जमादार उसे निकाल लेता था। उसे एक जगह जमा करके खाद बनाई जाती थी।
बाद में जब किले आदि बनवाने की योजनाएं बनाई जाने लगीं तो ध्यान रखा गया कि ये किसी नदी या नहर के किनारे बनवाए जाएं। वहां पर मल को नदी में बहा दिया जाता था। यह भी अच्छा तरीका नहीं था। धनी लोग अपने शौचालय में सजावट आदि भी करने लगे थे, पर मल की निकासी का इंतजाम संतोषजनक नहीं रहा पर इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम को दुर्गंध कतई बरदाश्त नहीं होती थी। वह हर बार शौच-क्रिया से निवृत्त होकर स्नान किया करती थीं। उस समय आम अंग्रेज महीने में एक बार ही नहाया करते थे। यदि वह महारानी न होती तो आम जनता उन्हें पागल समझती, क्योंकि नित्य स्नान करना उस समय इंग्लैंड में अजूबा ही था।
महारानी के धर्मपुत्र सर जॉन हैरिंगटन को जब पता चला कि उनकी माताजी को दुर्गंध से इतनी ज्यादा परेशानी होती है तो उन्होंने फ्लश वाला। शौचालय तैयार कराया। यह लगभग ऐसा ही था जैसा आजकल यूरोपियन शौचालय होते हैं, अर्थात् हैंडल दबाने से एक कंटेनर में रखा। पानी तेजी से निकलता है और मल को बहा देता है। सन् 1596 में
आविष्कृत यह शौचालय सिर्फ महारानी के इस्तेमाल में ही आ पाया था। आम जनता से यह दूर ही रहा, क्योंकि उस समय पानी की बड़ी समस्या थी।
सन् 1775 में अलेक्जेंडर क्यूमिंग नामक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने इसे अपने नाम पेटेंट कराया। बाद में क्यूमिंग की डिजाइन में जोसेफ ब्रमाह ने सुधार किया। इस प्रकार धीरे-धीरे स्वच्छ व दुर्गंध-रहित शौचालय सभी देशों में बनाए जाने लगे।