अध्यापक – राष्ट्र का निर्माता
Adhyapak – Rashtra ka Nirmata
राष्ट्र निर्माता अध्यापक का नाम आते ही हमारे मन में अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति की कल्पना हो उठती है जो आदर्श है, विवेकशील है और हर तरह से हमको सिखाने वाला है। अध्यापक और विद्यार्थी में वह संवेदनशील रिश्ता है जिससे हम सभी भली-भांति परिचित हैं। इसके लिए एक बहुत ही प्रसिद्ध उक्ति है “गुरु, गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाए, बलिहारि गुरु आपने जिन गोबिंद दियो मिलाए।” गुरु, शिक्षक, अध्यापक हमारे लिए पुरातन काल से पूजनीय रहे हैं और हमेशा ही रहेंगे। आज के युग का अध्यापक या पुरातन काल के गुरु, जिन्होंने अपना नाम अमर किया है, इसमें प्रमुख नाम जो हमारे मन मे उभर कर आते हैं और हमें हमेशा से ही याद रहते हैं वे प्रमुख नाम हैं गुरु वशिष्ट, ऋषि विश्वामित्र, ऋषि भारद्वाज, ऋषि वाल्मीकि, गुरु परशुराम, गुरु द्रोणाचार्य तथा पाणिनि। इन महान शिक्षकों ने ऐसे मनुष्यों के व्यक्तित्व का निर्माण किया, जिन्होंने आगे चलकर विस्तृत साम्राज्य एवं शांतिपूर्ण समाज का अस्तित्व रखा। भारत से बाहर विश्व में भी सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, रूसो, वाल्टेयर और दांते जैसे अनेक अध्यापक हुए जिन्होंने विभिन्न देशों में अपने-अपने शिष्यों के अन्दर राष्ट्रीय एवं सामाजिक क्रांतियों का बीजारोपण किया। इन क्रांतियों ने सफलता पायी और इन्हीं की बदौलत नवीन समाज व राष्ट्रों का उदय काल भारत की प्राचीन परंपरा के अनुसार यहाँ पर पहले गुरुकुल की व्यवस्था थी। गुरुकुल यानी गुरु का आश्रम। गुरुकुल में विद्यार्थी या शिष्य अपना परिवार छोड़कर गुरु के आश्रम में ही जीवन-यापन करते थे और शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु उसके लिए माता-पिता से बढ़कर होते थे। अपने गरु से अस्त्र-शस्त्र, वेदों का ज्ञान और विभिन्न सिद्धियाँ भी प्राप्त करते थे। शिष्य गुरु की विद्या ही नहीं, बल्कि उनके आचरण और मर्यादाओं का भी अनुकरण करते थे। आज भी अध्यापक बहुत सम्मान पाते हैं। ऐसे गुरुओं का उदाहरण देते हुए हम द्रोणाचार्य-एकलव्य और विश्वामित्र-राम आदि गुरुशिष्यों का नाम दे सकते हैं।
इन गुरु शिष्यों की वजह से ही आज तक गुरु-शिष्यों के बीच में यह प्रेम का संबंध याद रखने योग्य है।
वास्तव में हमारे हृदय में यह प्रश्न उठता है कि गुरु क्या है और वह क्यों इतना महत्वपूर्ण है? गुरु, शिक्षक या अध्यापक एक ही व्यक्ति के पर्यायवाची हैं। अध्यापक एक ऐसा व्यक्ति होता है जो समाज में बच्चों को शिक्षा व ज्ञान देता है। शिक्षा बच्चों के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि इसी ज्ञान व शिक्षा के कारण व्यक्ति स्वावलंबी, ऊर्जस्वी और सम्मानजनक बनता है। जीवन में हमें बहुत से ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती है जो हमें राह दिखाए। इस राह को दिखाने में शिक्षक, गुरु या अध्यापक ही वह पहला व्यक्ति होता है जो हमको यह सीखाता है। इन्हीं सब शक्तियों की वजह से शिक्षक का हमारी दृष्टि में इतना श्रेष्ठ स्थान और सम्मान है।
अपने माता-पिता के बाद शिक्षक ही ऐसा व्यक्ति होता है जो हमारे लिए प्रेरणास्रोत बनता है। जो जीवन की विषम परिस्थितियों से जूझने के लिए हमें ज्ञान देता है और हमारे मन की सारी उलझनों को दूर करता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि गुरु, शिक्षक या अध्यापक में ऐसे कौन से गुण होने चाहिए जिसकी वजह से वह इतना महत्वपूर्ण है। जीवन की शिक्षा अध्यापक ही कराता है। अपने माता-पिता के सुरक्षित आसरे को छोड़कर, अपने सहारे शिष्य जिसे अपनाता है वह शिक्षक ही होता है। शिक्षक उसके चरित्र का निर्माण करता है। शिक्षक को अपने जीवन में अत्यधिक संवेदनशील होना चाहिए। वह एक ऐसे कुम्हार की तरह होता है जिसे अपनी कौशलता और युक्ति से शिष्य रूपी घड़ा बनाना होता है। इसके लिए बहुत सावधानी और कार्यकुशलता की जरूरत होती है। शिक्षक शिष्य के लिए प्रेम का प्रतीक होता है। वह अपने शिक्षक से प्रेम अवश्य करता है क्योंकि उन्हीं के माध्यम से उसके जीवन में ज्ञान, स्वावलंबन और पहचान बनती है। अपनी पहचान समझना और पाना एक व्यक्ति के लिए जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारी स्वयं की पहचान हमें ईश्वरीयता के पास ले जाती है। जोकि सभी मनुष्यों का अंतिम लक्ष्य होता है। जीवन के शुरुआत में हम अपने आपको जानते हैं और फिर उसके बाद जीवन के समाप्त होने से पहले हम उस जन्म, पहचान के हिसाब से अपनी प्राप्तियों का अवलोकन करते हैं।
जीवन की शुरुआत में नि:संदेह हमारा मन कच्चा होता है। वह कच्चे बर्तन की तरह होता है यदि उसे सही या उत्तम मार्गदर्शन मिले तो वह समाज को पूर्ण रूप से परिवर्तित कर सकता है। वह चाहे तो मानव के भीतर जागृति उत्पन्न कर सकता है और धरती को स्वर्ग में भी परिवर्तित कर सकता है। ये सभी गुण एक अध्यापक हासिल कर सकता है। वह चाहे तो अपने सारे के सारे उत्तम गुणों का समावेश करके अपने जीवन को अन्य अध्यापकों की दृष्टि में भी आदर्शपूर्ण बना सकता है।
अब समस्या यह उठती है कि क्या अध्यापक ऐसा रह गया है? आज अध्यापक ऐसा नहीं है। वह एक साधारण व्यक्ति की तरह अपने आप को आम समझने लगा है। हमारे देश का सम्मानित शिक्षक आज अध्यापन कार्य को सेवा नहीं वरन एक व्यवसाय की भांति लेने लग गया है। सभी व्यवसायों की तरह वह इस व्यवसाय के जरिए भी धन कमाने में लग गया है।
शिक्षा का दान देकर धन कमाना कोई बरी बात नहीं है परन्तु शिक्षा का दान देते समय सिर्फ धन को ही ध्यान में रखना यह बहुत बुरी बात है क्योंकि इससे शिक्षा, शिष्य और गुरुत्व तीनों का समान रूप से अपमान होता है। जब उनको महसूस होता है कि उनके शिक्षक उनको धन के लालच में पढ़ा रहे हैं। तब उनके मन में बसी आदर्श मूर्ति ट जाती है और वे भी व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति में जुट जाते हैं।
एक आदर्श शिक्षक कैसा हो, यह हम सभी जानना चाहते हैं। एक आदर्श शिक्षक सौम्य और मानवता का प्रतिनिधि होना चाहिए। एक ऐसा व्यक्ति जो भावुक हो, विद्यार्थियों की विशेषताओं और कलाओं के प्रति उसका हर कार्य, उनके स्तर से उठाना हो, वह सिर्फ एक समृद्ध ज्ञानी ही न हो बल्कि एक महान और सम्मानजनक नागरिक भी हो, जो बच्चों को जीवनभर प्रेरणा देता रहे और जब भी जीवन में कोई विपत्ति आए तो उनकी दी हुई शिक्षाएँ शिष्यों के जीवन का हथियार और ढाल दोनों ही रूपों में काम आए। उनका सम्पूर्ण व्यक्त्वि ही ऐसा प्रकाशमय हो जो जीवन के सभी अंधियारों को दूर कर दे।
यदि किसी को घर से सम्पूर्ण प्रेम व स्वीकारिता नहीं भी मिल रही हो। तब भी शिक्षक की भावनाएँ इतनी पवित्र हो कि वह बच्चों के हृदय में अपनी जगह बना ले।
यदि ये सारी विशेषताएँ व गुण किसी व्यक्ति में आ जाए तो चाहे उसने शिक्षण-प्रशिक्षण लिया हो या नहीं वह एक उत्तम शिक्षक है। जहाँ भी वह जाएगा सभी के लिए एक शक्तिशाली व्यक्तित्व के रूप में होगा और अपने सम्मानित चरित्र के कारण हर जगह सम्मान का पात्र बनेगा।
परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि इतने महत्वपूर्ण पद पर आसीन शिक्षक आज अपने पद का गलत फायदा उठा रहा है। वह अपनी इच्छाओं, स्वभाव और अनुभवों के आधार पर विद्यार्थियों के साथ पक्षपात कर रहा है। उसके अंदर का आदर्श मर चुका है। वह आज सिर्फ भौतिकवादी दुनिया का हिस्सा बन कर रह गया है। वह समाज के कितने बड़े कर्त्तव्य-पद पर आसीन है यह वह भूल गया है। वह अपनी योग्यता का इस्तेमाल विद्यालयों से जल्दी घर जाकर कोचिंग क्लास में देता है। जिसमें वह मनमानी रकम हासिल करता है और यदि विद्यार्थी मंदबुद्धि है तो उसे दुख होने की बजाय खुशी होती है कि अब इस विद्यार्थी के माता-पिता से उसे अच्छी रकम प्राप्त हो जाएगी।
आज शिक्षकों का मानसिक स्तर गिरता जा रहा है। कुछेक शिक्षकों की गलती के कारण सारे शिक्षक वर्ग का सम्मान घट गया है। वह अब उतना सम्मानजनक नहीं रहा, जितना वह हमारे प्राचीन काल में हुआ करता था।
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि शिक्षक वर्ग में त्याग की कमी आ गई है। वह अपने ज्ञान का घमंड करता है और अपने अंहकार को नहीं छोड़ता। वह अपने विचारों को किसी के साथ बाँट नहीं सकता। अध्यापकों के सम्मान में कमी के और बहुत से कारण हैं, जैसे युवाओं और विद्यार्थियों के वर्ग में निराशावाद, स्वच्छंदतावाद एवं अन्य प्रकार के उपभोगवाद की बेड़ियाँ निरंतर पड़ती जा रही हैं। जिसका परिणाम यह निकला है कि अध्यापकों के प्रति सम्मान की भावना बहुत कम हो गई है।
अध्यापकों और अभिभावकों के बीच आपसी सहयोग और सद्भावना नहीं के बराबर रह गई है। अभिभावक वर्ग आज युवाओं के चरित्र का विकास करने के लिए, शिक्षकों की भूमिका को स्वीकारने में उत्साह नहीं दिखाते। अभिभावक भी शिक्षकों को मात्र एक व्यवसायिक वर्ग के रूप में देखते हैं और भी कारण यह हो सकते हैं कि अध्यापक वर्ग ने आज की दुनिया में अपनी नैतिक, सामाजिक जिम्मेदारियों से पलायन कर लिया है। शिक्षा क्षेत्र में बढ़ती व्यवसायिकता, उपभोक्तावाद, आपसी गुटबंदी, नैतिक शिथिलता और स्वार्थपरकता आदि ऐसे बहत से कारणों ने अध्यापकों को नैतिक व सामाजिक पतन के पथ पर अग्रसर कर दिया है। अध्यापक वर्ग की सारी दुनिया में निंदा की जाने लगी हैं। चाहे वे अभिभावक हो, स्वयं विद्यार्थी हो या कोई अन्य अध्यापक वर्ग की निंदा करने से हिचकिचाते नहीं हैं। इसलिए अब कुछ न कुछ सुधार कार्य बहुत जरूरी हो गये हैं। जिससे हमारा सम्मानित अध्यापक वर्ग फिर से सम्मानित बनता चला जाए और फिर वहीं जमाना आ जाए जब हम गरु. शिक्षक और अध्यापक को आत्म-ज्ञान तक का बोध कराने के लिए सक्षम मानने लगें और वह दोहा फिर से शिष्यों के मुखारविंद से फूट पड़े, “गुरु, गोबिंद दोऊ खड़े काके लागूं पाए, बलिहारि गुरु आपने जिन गोबिंद दियो मिलाए।”